जीव की चेतना के अध्ययन को एकात्म [ एक आत्म ], एकोब्रह्म [ एक ब्रह्म ] परम्परा के अंतर्गत रखा गया है। जिसे न सत न असत भी कहा गया है। ब्रह्म से लेटिन में Brain शब्द बना, लेकिन ज्योंही हम वैदिक-ज्ञान [विज्ञान] के अध्ययन में आते हैं, तो उसका प्रारंभ भौतिक देह और उसमे स्थित शरीर [ अणु-परमाणु ] के अध्ययन से होता है। वेद और वैदिक से बॉडी शब्द बना।

बॉडी में आते ही मैं, अहम् ब्रह्मास्मि वाले एक के स्थान पर हम दो हो जाते हैं। एक नर देह दूसरा मादा देह । लेकिन चूँकि नर और मादा दो अलग अलग होते हुए भी एक दुसरे के पूरक हैं अतः यह अद्वेत परम्परा के अंतर्गत आते हैं।

चूँकि शरीर पदार्थ से बना होता है और पदार्थ का आत्म Atom होता है जिसमे धन आवेशित प्रोटोन और ऋण आवेशित इलेक्ट्रोन दोनों बराबर संख्या में होते हैं अतः उसे अर्ध-नारीश्वर अद्वेत शिव भी कहा जाता है।

यही अर्ध-नारीश्वर जब पुरुष और प्रकृति कहे कहलाने लगते तो निर्जीव सृष्टि में पुरुष का तात्पर्य स्थान घेरने वाला पदार्थ और प्रकृति का अर्थ उस पदार्थ की गुण धर्मिता हो जाता है।

जब हम जीवजगत में आते हैं तो पुरुष का तात्पर्य शरीर और प्रकृति का तात्पर्य शरीर की त्रिगुणात्मक प्रकृति हो जाता है।

जब मानव साम्राज्य में आते हैं तो पुरुष और महिला हो जाते हैं। यहाँ महिला [मह + इला ] का तातपर्य जो मह [= वसा + शर्करा के योगिक Chemical compounds] को बाँध कर एक नये चेतन यंत्र को उत्पन्न करने वाली इला [ पृथ्वी,पृथा,धरती] होता है।

ब्राह्मण गर्न्थों से निकले उपनिषदों की भाषा में मनुष्य मनु और इला की सन्ताने हैं।

वैदिक साहित्य से निकले शैव साहित्य की भाषा में मानव शंकर-पार्वती की संतान हैं।

प्राकृत साहित्य से निकले वैष्णव साहित्य की भाषा में सम्पूर्ण जीव जगत भगवान-भगवती का ही व्यक्त रूप है अतः सभी नर-मादा की संताने हैं, इत्यादि शब्द कोष बन जाते हैं।

जब सामूहिक किन्तु वर्गीकृत समाज-व्यवस्था में,परिवार और अर्थ व्यवस्था में आते है तो 'नर-नारी' इन दो शब्दों के द्वंद्व समास में स्त्रीलिंग शब्द पहले आ जाता है जैसे कि पार्वती-शंकर,लक्ष्मी-नारायण,सीता-राम,राधे-श्याम इत्यादि। इसी से आप अनुमान लगा सकते हैं कि भारत में पत्नी का स्थान प्रथम होता है।

जब हम वचन बद्ध हो कर विवाह का अनुबंध /Agreement नहीं करते, केवल प्रेमी-प्रेमिका होते हैं तो कार्तिकेय और कृतिकाएं कहलाते हैं।

यही नर-मादा जब माँ और पुत्र होते हैं तो पदार्थ से बनी मादा देह पृथा और उसका पुत्र पार्थ होता है और ब्रह्म -परंपरा में माता जगत-अम्बा [जगदम्बा] और पुत्र शम्भू हो जाता है।

कुलीन परिवारों में पुरुष और महिला के सम्बंद्धों में भी दो सम्बंद्ध चलते हैं।

एक वर्ग की महिलायें जो कुल में विवाहित होकर आती हैं जैसें कि माता,दादी,चाची,स्वयं की पत्नी, भाई की पत्नी, पुत्र वधु इत्यादि ये सभी कुल-माताएं कही गईं हैं।

जो कुल मैं पैदा होती है जैसे कि बहन,बुआ,पुत्री,भाईयों की पुत्रियाँ इत्यादि वे कुल-देवीयां कहलाती हैं।

इसीलिए अनेक समाजों में दामाद को देव या देवता कहा जाता है तो कुछ समाज जो कभी मातृ सत्तात्मक रह चुके हैं उनमे में पिता को देवता कहते हैं।

वे सभी विषय जो वैदिक परम्परा [ Science ] में होते हैं उन्हें श्रुति परम्परा के अंतर्गत रखा गया है और ब्रह्म परम्परा [ Sanse ] को स्मृति परम्परा कहा गया है। लेकिन प्रणय विज्ञान एक मात्र ऐसा विषय जो दोनों के बराबर संतुलित योग से बनता है।

नर-मादा का आकर्षण जहाँ Sanse से सम्बन्ध रखने के कारण धर्म को धारण करने का विषय है।

लेकिन शरीर विज्ञान की महत्त्व पूर्ण भूमिका होने के कारण यह Science का विषय भी है। Science की शुरुआत भी यहीं से होती है।

अतः सभी विषय निशुल्क होंगे लेकिन इस विषय की महत्ता देखते हुए एक सुनिश्चित अवधि के बाद इस ब्लॉग को शुल्क के अंतर्गत रखा जायेगा।


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बुधवार, 26 सितंबर 2012

विवाह के नियम और ब्रह्म एवं वैदिक परंपरा का सांसकृतिक योग !

जीव की चेतना के अध्ययन को एकात्म [ एक आत्म ], एकोब्रह्म [ एक ब्रह्म ] परम्परा के अंतर्गत रखा गया है। जिसे  न सत न असत भी कहा गया है। ब्रह्म से लेटिन में  Brain शब्द बना, लेकिन ज्योंही हम वैदिक-ज्ञान [विज्ञान] के अध्ययन में आते हैं, तो उसका प्रारंभ भौतिक देह और उसमे स्थित शरीर [ अणु-परमाणु ] के अध्ययन से होता है। वेद और वैदिक से बॉडी शब्द बना।

बॉडी में आते ही मैं, अहम् ब्रह्मास्मि वाले एक के स्थान पर हम दो हो जाते हैं। एक नर देह दूसरा मादा देह । लेकिन चूँकि नर और मादा दो अलग अलग होते हुए भी एक दूसरे के पूरक हैं अतः यह अद्वेत परम्परा के अंतर्गत आते हैं।

चूँकि शरीर पदार्थ से बना होता है और पदार्थ का आत्म Atom होता है जिसे भूतात्मा भी कहा गया है। जिसमें धन आवेशित प्रोटोन और ऋण आवेशित इलेक्ट्रोन दोनों बराबर संख्या में होते हैं अतः उसे अर्ध-नारीश्वर अद्वेत शिव भी कहा जाता है। 

यही अर्ध-नारीश्वर जब पुरुष और प्रकृति कहलाने लगते हैं तो निर्जीव सृष्टि में पुरुष का तात्पर्य स्थान घेरने वाला पदार्थ और प्रकृति का अर्थ उस पदार्थ की गुणधर्मिता हो जाता है। 
जब हम जीवजगत में आते हैं तो पुरुष का तात्पर्य शरीर और प्रकृति का तात्पर्य शरीर की त्रिगुणात्मक प्रकृति हो जाता है। 

जब मानव साम्राज्य में आते हैं तो पुरुष और महिला हो जाते हैं। यहाँ महिला [मह + इला ] का तात्पर्य जो मह [= वसा + शर्करा के योगिक Organic Chemical compounds] को बाँध कर एक नये चेतन यंत्र को उत्पन्न करने वाली इला [ पृथ्वी,पृथा,धरती] होता है।

ब्राह्मण ग्रंथों से निकले उपनिषदों की भाषा में मनुष्य मनु और इला की सन्ताने हैं। 
वैदिक साहित्य से निकले शैव साहित्य की भाषा में मानव शंकर-पार्वती की संतानें हैं। 
प्राकृत साहित्य से निकले वैष्णव साहित्य की भाषा में सम्पूर्ण जीव जगत भगवान-भगवती का ही व्यक्त रूप है अतः सभी नर-मादा की संताने हैं, इत्यादि। इस प्रकार जब पुराने शब्दों के प्रति पूर्वाग्रह बन जाते हैं अथवा विषय की नयी शाखा विकसित हो जाती है तो अनेक नए शब्द बनते हैं जो अलग-अलग भावार्थ व्यक्त करते हैं। इस तरह कालांतर में शब्दकोष बन जाते हैं। 

जब सामूहिक किन्तु वर्गीकृत समाज-व्यवस्था में,परिवार और अर्थ व्यवस्था में  आते है तो 'नर-नारी'  इन दो शब्दों के द्वंद्व समास में स्त्रीलिंग शब्द पहले आ जाता है जैसे कि पार्वती-शंकर, लक्ष्मी-नारायण, सीता-राम, राधे-श्याम इत्यादि। इसी से आप अनुमान लगा सकते हैं कि भारत में पत्नी का स्थान प्रथम होता है। 

जब हम वचनबद्ध हो कर विवाह का अनुबंध /Agreement नहीं करते,  केवल प्रेमी-प्रेमिका होते हैं तो कार्तिकेय और कृतिकाएं कहलाते हैं। 
     
यही नर-मादा जब माँ और पुत्र होते हैं तो पदार्थ से बनी मादा देह पृथा और पदार्थ से बना उसका पुत्र पार्थ होता है।
ब्रह्म -परंपरा में माता जगत-अम्बा [जगदम्बा] और पुत्र शम्भू हो जाता है।

कुलीन परिवारों में पुरुष और महिला के सम्बंद्धों में भी दो सम्बंद्ध चलते हैं। 
एक वर्ग की महिलायें जो कुल में विवाहित होकर आती हैं जैसें कि माता, दादी, चाची, स्वयं की पत्नी, भाई की पत्नी, पुत्र वधु इत्यादि ये सभी कुल-माताएं कही गईं हैं। 
  
जो कुल मैं पैदा होती है जैसे कि बहन, बुआ, पुत्री, भाईयों की पुत्रियाँ इत्यादि वे कुल-देवीयां कहलाती हैं। 
इसीलिए अनेक समाजों में दामाद को देव या देवता कहा जाता है तो कुछ समाज जो कभी मातृ सत्तात्मक रह चुके हैं उनमे में पिता को देवता कहते हैं। 

वे सभी विषय जो वैदिक परम्परा [ Science ] में होते हैं उन्हें श्रुति परम्परा के अंतर्गत रखा गया है और ब्रह्म परम्परा [ Sanse ] को स्मृति परम्परा कहा गया है। लेकिन प्रणय विज्ञान एक मात्र ऐसा विषय जो दोनों के बराबर संतुलित योग से बनता है। 

वैदिक परंपरा में इस तथ्य का विज्ञान बताया गया है की कुल-देवियों और माता, दादी और नानी के कुल को छोड़ कर किसी भी स्त्री को कृतिका बनाया जा सकता है। इस तरह x y गुणसूत्रों X Y Chromosomes में निकट के संबंधों से पैदा होने वाले विकार न्यूनतम हो जाते हैं। ये वे विकार होते हैं जो मानसिक रूप से भावनात्मक संवेदनाओं के बल को भावुकता पूर्ण दुर्बलता में बदल देते हैं। इसी तरह शारीरिक रूप से रोग-प्रतिरोधक क्षमता कम कर देते हैं। कभी कभी मानसिक और शारीरिक रूप से अपंग संतान भी पैदा हो जाती है। जिन सम्प्रदायों में निकट सम्बन्ध होते हैं उनमे परस्पर भावुकता पूर्ण एकता और मानसिक-शारीरिक अपंगता स्पष्ट देखने को मिलेगी। 
इसीलिए भारतीय वैवाहिक नियमों में ये चार रिश्ते छोड़ कर विवाह किया जाता है।

दूसरा पक्ष है कि कार्तिकेय और कृतिकाएँ जितने दूर के कुल से सम्बन्ध रखेंगे उतने ही बलवान और शक्तिवान संताने पैदा होगी। रोग प्रतिरोधक क्षमता भी कम होगी लेकिन बौद्धिक स्तर पर उनमे संवेदन शीलता और भावनात्मक संबंधों के प्रति प्रतिबद्धता की कमी मिलेगी। भारत में राजघरानों के सम्बन्ध अधिकतर अंतर्जातीय होते थे उनमे ये विकार सहित गुण मिलेंगे। इसलिए भारत में जनसाधारण के लिए अपनी जाति में विवाह करने की परम्परा स्थापित की गई। इसका एक सकारात्मक परिणाम यह भी होता है कि संतान में अपने पैतृक और मातृक दोनों परिवारों के एक जैसे रोजगार से पनपने वाले senses जन्मजात और स्वतः हो जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप आप अपने वंशानुगत रोजगार के धर्म को धारण करके ही पैदा होते हैं।

इस तरह न तो मानसिक शारीरिक अपंगता पैदा होती है जो व्यक्ति को योग्य और हरामखोर बना देती है और न ही संवेदनहीनता पैदा होती है जो व्यक्ति को भ्रष्टाचारी बना देती है। 

ब्रह्म परंपरा कहती है कि नर-मादा का आकर्षण Sense से सम्बन्ध रखने के कारण धर्म को धारण करने का विषय है। अतः एक ही गाँव और एक ही साथ रहने वाले बच्चों में जब भाई-बहन का भाव पैदा हो जाता है तो वहाँ वंश [कुल] परंपरा से भले ही वे निकट सम्बन्धी नहीं हैं लेकिन उनको कार्तिकेय और कृतिका नहीं बनना चाहिए। लेकिन यदि मानव प्रजाति विलुप्ति की कगार पर आ जाती है तब इन सभी भावनात्मक और वैज्ञानिक तत्थों को ताक पर रख कर मानव प्रजाति का विस्तार करना चाहिए और सभी कुंठाओं से मुक्त हो जाना चाहिए।

इस तरह शरीर विज्ञान की महत्त्वपूर्ण भूमिका होने के कारण यह Science का विषय भी है। Science की शुरुआत भी यहीं से होती है तो दूसरी तरफ यह Sense का विषय भी है।
अतः सभी विषय निशुल्क होंगे लेकिन इस विषय की महत्ता देखते हुए एक सुनिश्चित अवधि के बाद इस ब्लॉग को शुल्क के अंतर्गत रखा जायेगा। 

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ  कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में रहने योग्य है जो जन साधारण के लिए कल्याणकारी कार्य करने में समर्थ हैं।

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