जीव की चेतना के अध्ययन को एकात्म [ एक आत्म ], एकोब्रह्म [ एक ब्रह्म ] परम्परा के अंतर्गत रखा गया है। जिसे न सत न असत भी कहा गया है। ब्रह्म से लेटिन में Brain शब्द बना, लेकिन ज्योंही हम वैदिक-ज्ञान [विज्ञान] के अध्ययन में आते हैं, तो उसका प्रारंभ भौतिक देह और उसमे स्थित शरीर [ अणु-परमाणु ] के अध्ययन से होता है। वेद और वैदिक से बॉडी शब्द बना।

बॉडी में आते ही मैं, अहम् ब्रह्मास्मि वाले एक के स्थान पर हम दो हो जाते हैं। एक नर देह दूसरा मादा देह । लेकिन चूँकि नर और मादा दो अलग अलग होते हुए भी एक दुसरे के पूरक हैं अतः यह अद्वेत परम्परा के अंतर्गत आते हैं।

चूँकि शरीर पदार्थ से बना होता है और पदार्थ का आत्म Atom होता है जिसमे धन आवेशित प्रोटोन और ऋण आवेशित इलेक्ट्रोन दोनों बराबर संख्या में होते हैं अतः उसे अर्ध-नारीश्वर अद्वेत शिव भी कहा जाता है।

यही अर्ध-नारीश्वर जब पुरुष और प्रकृति कहे कहलाने लगते तो निर्जीव सृष्टि में पुरुष का तात्पर्य स्थान घेरने वाला पदार्थ और प्रकृति का अर्थ उस पदार्थ की गुण धर्मिता हो जाता है।

जब हम जीवजगत में आते हैं तो पुरुष का तात्पर्य शरीर और प्रकृति का तात्पर्य शरीर की त्रिगुणात्मक प्रकृति हो जाता है।

जब मानव साम्राज्य में आते हैं तो पुरुष और महिला हो जाते हैं। यहाँ महिला [मह + इला ] का तातपर्य जो मह [= वसा + शर्करा के योगिक Chemical compounds] को बाँध कर एक नये चेतन यंत्र को उत्पन्न करने वाली इला [ पृथ्वी,पृथा,धरती] होता है।

ब्राह्मण गर्न्थों से निकले उपनिषदों की भाषा में मनुष्य मनु और इला की सन्ताने हैं।

वैदिक साहित्य से निकले शैव साहित्य की भाषा में मानव शंकर-पार्वती की संतान हैं।

प्राकृत साहित्य से निकले वैष्णव साहित्य की भाषा में सम्पूर्ण जीव जगत भगवान-भगवती का ही व्यक्त रूप है अतः सभी नर-मादा की संताने हैं, इत्यादि शब्द कोष बन जाते हैं।

जब सामूहिक किन्तु वर्गीकृत समाज-व्यवस्था में,परिवार और अर्थ व्यवस्था में आते है तो 'नर-नारी' इन दो शब्दों के द्वंद्व समास में स्त्रीलिंग शब्द पहले आ जाता है जैसे कि पार्वती-शंकर,लक्ष्मी-नारायण,सीता-राम,राधे-श्याम इत्यादि। इसी से आप अनुमान लगा सकते हैं कि भारत में पत्नी का स्थान प्रथम होता है।

जब हम वचन बद्ध हो कर विवाह का अनुबंध /Agreement नहीं करते, केवल प्रेमी-प्रेमिका होते हैं तो कार्तिकेय और कृतिकाएं कहलाते हैं।

यही नर-मादा जब माँ और पुत्र होते हैं तो पदार्थ से बनी मादा देह पृथा और उसका पुत्र पार्थ होता है और ब्रह्म -परंपरा में माता जगत-अम्बा [जगदम्बा] और पुत्र शम्भू हो जाता है।

कुलीन परिवारों में पुरुष और महिला के सम्बंद्धों में भी दो सम्बंद्ध चलते हैं।

एक वर्ग की महिलायें जो कुल में विवाहित होकर आती हैं जैसें कि माता,दादी,चाची,स्वयं की पत्नी, भाई की पत्नी, पुत्र वधु इत्यादि ये सभी कुल-माताएं कही गईं हैं।

जो कुल मैं पैदा होती है जैसे कि बहन,बुआ,पुत्री,भाईयों की पुत्रियाँ इत्यादि वे कुल-देवीयां कहलाती हैं।

इसीलिए अनेक समाजों में दामाद को देव या देवता कहा जाता है तो कुछ समाज जो कभी मातृ सत्तात्मक रह चुके हैं उनमे में पिता को देवता कहते हैं।

वे सभी विषय जो वैदिक परम्परा [ Science ] में होते हैं उन्हें श्रुति परम्परा के अंतर्गत रखा गया है और ब्रह्म परम्परा [ Sanse ] को स्मृति परम्परा कहा गया है। लेकिन प्रणय विज्ञान एक मात्र ऐसा विषय जो दोनों के बराबर संतुलित योग से बनता है।

नर-मादा का आकर्षण जहाँ Sanse से सम्बन्ध रखने के कारण धर्म को धारण करने का विषय है।

लेकिन शरीर विज्ञान की महत्त्व पूर्ण भूमिका होने के कारण यह Science का विषय भी है। Science की शुरुआत भी यहीं से होती है।

अतः सभी विषय निशुल्क होंगे लेकिन इस विषय की महत्ता देखते हुए एक सुनिश्चित अवधि के बाद इस ब्लॉग को शुल्क के अंतर्गत रखा जायेगा।


कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और http://gismindia.blogspot.com/ से प्रारंभ करें। शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में रहने योग्य योगी हैं जो सभी विषयों का योग करके ज्ञानानद भी ले सकें और नव भारत संरचना के, चिन्तन मनन करने वाले, निदेशक मंडल में आ सकें।


बुधवार, 26 सितंबर 2012

विवाह के नियम और ब्रह्म एवं वैदिक परंपरा का सांसकृतिक योग !

जीव की चेतना के अध्ययन को एकात्म [ एक आत्म ], एकोब्रह्म [ एक ब्रह्म ] परम्परा के अंतर्गत रखा गया है। जिसे  न सत न असत भी कहा गया है। ब्रह्म से लेटिन में  Brain शब्द बना, लेकिन ज्योंही हम वैदिक-ज्ञान [विज्ञान] के अध्ययन में आते हैं, तो उसका प्रारंभ भौतिक देह और उसमे स्थित शरीर [ अणु-परमाणु ] के अध्ययन से होता है। वेद और वैदिक से बॉडी शब्द बना।

बॉडी में आते ही मैं, अहम् ब्रह्मास्मि वाले एक के स्थान पर हम दो हो जाते हैं। एक नर देह दूसरा मादा देह । लेकिन चूँकि नर और मादा दो अलग अलग होते हुए भी एक दूसरे के पूरक हैं अतः यह अद्वेत परम्परा के अंतर्गत आते हैं।

चूँकि शरीर पदार्थ से बना होता है और पदार्थ का आत्म Atom होता है जिसे भूतात्मा भी कहा गया है। जिसमें धन आवेशित प्रोटोन और ऋण आवेशित इलेक्ट्रोन दोनों बराबर संख्या में होते हैं अतः उसे अर्ध-नारीश्वर अद्वेत शिव भी कहा जाता है। 

यही अर्ध-नारीश्वर जब पुरुष और प्रकृति कहलाने लगते हैं तो निर्जीव सृष्टि में पुरुष का तात्पर्य स्थान घेरने वाला पदार्थ और प्रकृति का अर्थ उस पदार्थ की गुणधर्मिता हो जाता है। 
जब हम जीवजगत में आते हैं तो पुरुष का तात्पर्य शरीर और प्रकृति का तात्पर्य शरीर की त्रिगुणात्मक प्रकृति हो जाता है। 

जब मानव साम्राज्य में आते हैं तो पुरुष और महिला हो जाते हैं। यहाँ महिला [मह + इला ] का तात्पर्य जो मह [= वसा + शर्करा के योगिक Organic Chemical compounds] को बाँध कर एक नये चेतन यंत्र को उत्पन्न करने वाली इला [ पृथ्वी,पृथा,धरती] होता है।

ब्राह्मण ग्रंथों से निकले उपनिषदों की भाषा में मनुष्य मनु और इला की सन्ताने हैं। 
वैदिक साहित्य से निकले शैव साहित्य की भाषा में मानव शंकर-पार्वती की संतानें हैं। 
प्राकृत साहित्य से निकले वैष्णव साहित्य की भाषा में सम्पूर्ण जीव जगत भगवान-भगवती का ही व्यक्त रूप है अतः सभी नर-मादा की संताने हैं, इत्यादि। इस प्रकार जब पुराने शब्दों के प्रति पूर्वाग्रह बन जाते हैं अथवा विषय की नयी शाखा विकसित हो जाती है तो अनेक नए शब्द बनते हैं जो अलग-अलग भावार्थ व्यक्त करते हैं। इस तरह कालांतर में शब्दकोष बन जाते हैं। 

जब सामूहिक किन्तु वर्गीकृत समाज-व्यवस्था में,परिवार और अर्थ व्यवस्था में  आते है तो 'नर-नारी'  इन दो शब्दों के द्वंद्व समास में स्त्रीलिंग शब्द पहले आ जाता है जैसे कि पार्वती-शंकर, लक्ष्मी-नारायण, सीता-राम, राधे-श्याम इत्यादि। इसी से आप अनुमान लगा सकते हैं कि भारत में पत्नी का स्थान प्रथम होता है। 

जब हम वचनबद्ध हो कर विवाह का अनुबंध /Agreement नहीं करते,  केवल प्रेमी-प्रेमिका होते हैं तो कार्तिकेय और कृतिकाएं कहलाते हैं। 
     
यही नर-मादा जब माँ और पुत्र होते हैं तो पदार्थ से बनी मादा देह पृथा और पदार्थ से बना उसका पुत्र पार्थ होता है।
ब्रह्म -परंपरा में माता जगत-अम्बा [जगदम्बा] और पुत्र शम्भू हो जाता है।

कुलीन परिवारों में पुरुष और महिला के सम्बंद्धों में भी दो सम्बंद्ध चलते हैं। 
एक वर्ग की महिलायें जो कुल में विवाहित होकर आती हैं जैसें कि माता, दादी, चाची, स्वयं की पत्नी, भाई की पत्नी, पुत्र वधु इत्यादि ये सभी कुल-माताएं कही गईं हैं। 
  
जो कुल मैं पैदा होती है जैसे कि बहन, बुआ, पुत्री, भाईयों की पुत्रियाँ इत्यादि वे कुल-देवीयां कहलाती हैं। 
इसीलिए अनेक समाजों में दामाद को देव या देवता कहा जाता है तो कुछ समाज जो कभी मातृ सत्तात्मक रह चुके हैं उनमे में पिता को देवता कहते हैं। 

वे सभी विषय जो वैदिक परम्परा [ Science ] में होते हैं उन्हें श्रुति परम्परा के अंतर्गत रखा गया है और ब्रह्म परम्परा [ Sanse ] को स्मृति परम्परा कहा गया है। लेकिन प्रणय विज्ञान एक मात्र ऐसा विषय जो दोनों के बराबर संतुलित योग से बनता है। 

वैदिक परंपरा में इस तथ्य का विज्ञान बताया गया है की कुल-देवियों और माता, दादी और नानी के कुल को छोड़ कर किसी भी स्त्री को कृतिका बनाया जा सकता है। इस तरह x y गुणसूत्रों X Y Chromosomes में निकट के संबंधों से पैदा होने वाले विकार न्यूनतम हो जाते हैं। ये वे विकार होते हैं जो मानसिक रूप से भावनात्मक संवेदनाओं के बल को भावुकता पूर्ण दुर्बलता में बदल देते हैं। इसी तरह शारीरिक रूप से रोग-प्रतिरोधक क्षमता कम कर देते हैं। कभी कभी मानसिक और शारीरिक रूप से अपंग संतान भी पैदा हो जाती है। जिन सम्प्रदायों में निकट सम्बन्ध होते हैं उनमे परस्पर भावुकता पूर्ण एकता और मानसिक-शारीरिक अपंगता स्पष्ट देखने को मिलेगी। 
इसीलिए भारतीय वैवाहिक नियमों में ये चार रिश्ते छोड़ कर विवाह किया जाता है।

दूसरा पक्ष है कि कार्तिकेय और कृतिकाएँ जितने दूर के कुल से सम्बन्ध रखेंगे उतने ही बलवान और शक्तिवान संताने पैदा होगी। रोग प्रतिरोधक क्षमता भी कम होगी लेकिन बौद्धिक स्तर पर उनमे संवेदन शीलता और भावनात्मक संबंधों के प्रति प्रतिबद्धता की कमी मिलेगी। भारत में राजघरानों के सम्बन्ध अधिकतर अंतर्जातीय होते थे उनमे ये विकार सहित गुण मिलेंगे। इसलिए भारत में जनसाधारण के लिए अपनी जाति में विवाह करने की परम्परा स्थापित की गई। इसका एक सकारात्मक परिणाम यह भी होता है कि संतान में अपने पैतृक और मातृक दोनों परिवारों के एक जैसे रोजगार से पनपने वाले senses जन्मजात और स्वतः हो जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप आप अपने वंशानुगत रोजगार के धर्म को धारण करके ही पैदा होते हैं।

इस तरह न तो मानसिक शारीरिक अपंगता पैदा होती है जो व्यक्ति को योग्य और हरामखोर बना देती है और न ही संवेदनहीनता पैदा होती है जो व्यक्ति को भ्रष्टाचारी बना देती है। 

ब्रह्म परंपरा कहती है कि नर-मादा का आकर्षण Sense से सम्बन्ध रखने के कारण धर्म को धारण करने का विषय है। अतः एक ही गाँव और एक ही साथ रहने वाले बच्चों में जब भाई-बहन का भाव पैदा हो जाता है तो वहाँ वंश [कुल] परंपरा से भले ही वे निकट सम्बन्धी नहीं हैं लेकिन उनको कार्तिकेय और कृतिका नहीं बनना चाहिए। लेकिन यदि मानव प्रजाति विलुप्ति की कगार पर आ जाती है तब इन सभी भावनात्मक और वैज्ञानिक तत्थों को ताक पर रख कर मानव प्रजाति का विस्तार करना चाहिए और सभी कुंठाओं से मुक्त हो जाना चाहिए।

इस तरह शरीर विज्ञान की महत्त्वपूर्ण भूमिका होने के कारण यह Science का विषय भी है। Science की शुरुआत भी यहीं से होती है तो दूसरी तरफ यह Sense का विषय भी है।
अतः सभी विषय निशुल्क होंगे लेकिन इस विषय की महत्ता देखते हुए एक सुनिश्चित अवधि के बाद इस ब्लॉग को शुल्क के अंतर्गत रखा जायेगा। 

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ  कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में रहने योग्य है जो जन साधारण के लिए कल्याणकारी कार्य करने में समर्थ हैं।

रविवार, 23 सितंबर 2012

सेनानीनाम अहम् स्कन्द: ! सेनिकों में मैं स्कन्द हूँ।

गीता अध्याय-10 श्लोक-24 / Gita Chapter-10 Verse-24


पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् 
सेनानीनामहं स्कन्द: सरसामस्मि सागर: ।।24।।

पुरोधसाम् = पुरोहितों में; मुख्यम् = मुख्य अर्थात् देवताओं का पुरोहित; माम् = मुझे; विद्धि = जान; पार्थ = हे पार्थ;  बृहस्पतिम् = बृहस्पति;  सेनानीनाम् = सेनानियों में; अहम् = मैं; स्कन्द: = स्कन्द ; सरसाम् = रस सहित में; अस्मि = मैं हूँ; सागर: = सागर 

पुरोहितों में मुखिया बृहस्पति मुझको जान । हे पार्थ ! मैं सेनापतियों में स्कन्द और जलाशयों में समुद्र हूँ ।।24।।

यह उपर्युक्त अनुवाद किसी ने किया और उसी की प्रतिलिपि चल रही  है। यहाँ सेनानी शब्द आया है न कि सेनापति। मैं सेनानियों में स्कन्द हूँ।


स्कन्द शब्द शुक्राणुओं  के लिए काम में लिया जाता है। स्कन्द शब्द  का ही, अपभ्रंश उच्चारण, स्पर्म sperm है।  

जब स्खलन होता है तो असंख्य शुक्राणु अंडाणु की तरफ अनुशासित हो कर दौड़ते हैं| यह सब सैनिक अनुशासन से होता है। लेकिन सिर्फ एक शुक्राणु अंडाणु के अन्दर जा पाता है। उसी समय तुरन्त अंडे के ऊपर एक अभेद्य परत बन जाती है। बाकि सब वीरगति को प्राप्त हो जाते हैं। 

सैनिक का अर्थ ही विपक्षी सैनिक की हत्या अथवा अपने पक्ष की रक्षा लेकिन ये सैनिक लड़ाई नहीं करते सिर्फ दुर्ग में प्रवेश करने के लिए दौड़ लगाते हैं और एक सेनिक के दुर्ग में प्रवेश करते ही दुर्गा एक सुरक्षा कवच बन कर दूर्ग को अभेद्य बना देती है।


कभी कभी अपवाद स्वरूप गर्भ  में एक से अधिक अंडाणु बन जाते हैं, तो जुड़वाँ पैदा होते हैं और अपवाद में भी अपवाद यह भी होता है कि एक अण्डाणु में दो स्कन्द घुसने का संयोग बन जाता है तो दो सर या चार हाथ या चार पैर या दो धड़ इत्यादि विकृतियाँ आ जाती है।  


मेरा एक नाम कार्तिकेय भी है। मैं स्कन्द जब अपना स्वरूप धारण करके गर्भ से बाहर निकलता हूँ तो मेरा  सम्बोधन कार्तिकेय और कृतिका हो जाता है। मैं पहले किशोरावस्था में कुमार-और ऊमा फिर वयस्क होकर शंकर और पार्वती कहलाने लगता हूँ। 

जब संतति विस्तार के लिए देव-यज्ञ करने वाला प्रणय का देवी-देवता बनता हूँ तब तो मैं कार्तिकेय और कृतिका होता हूँ और जब देव व् देवी के स्थान पर यक्ष-यक्षणी  होता हूँ तो भैरव-भैरवी कहालाता हूँ और  तब मैं प्रणय सूत्र में नहीं बंध कर पुत्र देने का अनुबंध करता हूँ एवज में शुक्राणु [स्कन्द] पैदा करने वाले आहार तेल और अंडाणु पैदा करने वाले हिंगलू की अपेक्षा करता या करती हूँ  और जब आहार में माँस और मदिरा का अत्यधिक  सेवन कर लेता हूँ तो राक्षस-राक्षसी बन जाता हूँ तब बलात्कारी और आतंकी आचरण का बन जाता हूँ। 

मैं जब अर्धनारीश्वर शिव, सर्व कल्याणकारी शिव, होता हूँ तो परमाणु शब्द का मानवीकरण सम्बोधन होता हूँ।


जब शंकर नाम से पुकारा जाता हूँ तब मानव की ॐ आकार वाली देह का सम्बोधन होता हूँ और आचरण सें विकारों का शमन करके शम+कर = शंकर हो जाता हूँ और इस भौतिक देह में शम को स्थायी करके शम +भू = शम्भु कहलाता हूँ। 


नारी रूप में सिने पर पर्वत जैसे उभार आ जाते है तो ऊमा से पार्वती बन जता हूँ।  


चूँकि मैं अपनी ॐ आकार वाली देह में 33 वर्गों में वर्गीकृत करोंड़ों देवी-देवताओं के शरीर को धारण किये रहता हूँ अतः महादेवी और महादेव कहलाता हूँ।  


ब्रह्मा अर्थात ब्राह्मण-परम्परा और विष्णु अर्थात वैष्णव-परम्परा में क्रमशः शिष्य और सेवा कर्मी Serving personnel होते हैं जिनका परस्पर सम्बन्ध क्रमशः शिक्षक-शिष्य और संस्कारित करने वाली आचार्य-श्रावक,  दक्ष-दीक्षा की पिता-पुत्र परम्परा से होता है जो कि ब्रेन और माईन्ड से सबन्धित आचरण होते हैं।सेवा परम्परा में गुरु-भक्त होता है। जबकि मैं [कार्तिकेय] सन्तान परम्परा वाली पिता-पुत्र परम्परा से हूँ।


जिस तरह ब्राह्मण परम्परा में शिष्य भी आगे जाकर शिक्षक बनता है और कर्मचारी भी अधिकारी बनता है उसी तरह मैं कर्तिकेय हूँ या कृतिकाएँ हूँ चाहे भैरव या भैरवी चाहे शंकर हूँ या पार्वती हूँ सभी शिव और शक्ति का रूप हूँ  सभी रूप पदार्थ और प्रकृति [ पदार्थ की गुणधर्मिता ] ही हूँ। शरीर और देह रूप में ॐ आकर रूप में साकार हूँ।


शंकर की संताने ही देव, यक्ष एवं राक्षस के आचरण वाली शारीरिक प्रकृति लेकर पैदा होते हैं या फिर आहार के माध्यम से ये तीन प्रकृतियाँ विकसित होती है। 

जबकि विष्णु  जीवविज्ञान का व्यापार करके उत्पादन उपजाने वाला जैविक चक्र चलाते हैं। ब्रह्मा चेतना पैदा करके, शरीर की त्रि-गुण-आत्म प्रकृति को वश में करके, दिमाग से ब्राह्मण बनाते हैं 


अर्थात मैं कार्तिकेय शिव का सन्तान रुपी पुत्र  है। जबकि शिक्षक ब्रह्मा के शिष्य मानस-पुत्र  होते है। सरंक्षक विष्णु के सिर्फ भक्त होते हैं यानी ब्रह्मा विष्णु दोनों की ही संतान परम्परा [ वंशानुगत गुण सूत्र पम्परा ] नहीं होती। 


इस श्लोक में दो आयाम और बताये हैं।

पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् ।

यहाँ पुरोधा शब्द आया है न कि पुरोहित। इसका सही अनुवाद होता है पुरोधाओं में मुख्य वृहस्पति हूँ। चूँकि वृहस्पति देवों के पुरोहित है अतः अनुवादक ने पुरोहितो में वृहस्पति कर दिया वही चला आ रहा है। 

पुरोधिका उसे कहा जाता है जो एक बार प्रेमिका-पत्नी रह चुकी होती है यानी सन्तान प्राप्ति के लिए देव यज्ञ में सहभागी रह चुकी होती है। उसी का पुर्लिंग पुरोधा है। पुरोधा यानी याजक यानी यज्ञ का अग्रज।


पुरोधा का वाक्य में प्रयोग; "स्वतंत्रता संग्राम के पुरोधाओं में लक्ष्मी बाई का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।"......कालिदास साहित्य की नाट्य परंपरा के पुरोधा थे।  


देव यज्ञ से पहले पुष्टिवर्धक आहार लिया जाता है अतः भोजन पकाने वाला पुरोहित महत्व पूर्ण भूमिका में होता है लेकिन चूँकि यहाँ विषय विज्ञान की गहराई का है अतः देवयज्ञ से पहले पुष्टि-वर्धक आहार लिया जाता है। पुरोहित [ देह रूपी पुर का हित करने वाला] यज्ञशाला निदेशक [ Kitchen's Cookery] होता है। देवों का यानी देवी सम्पदा युक्त व्यक्तियों का पुरोहित द्वारा गुरु वृहस्पति इस विद्या के गुर सीखे जाते हैं और यहाँ गुरु की भूमिका एक ग्रह वृहस्पति निभा रहा है जो कि व्यक्ति में संयम और स्वविवेक पैदा करके आत्मानुशासित रखता है अतः उसे पुरोधाओं में मुख्य पुरोधा माना जाता है। 

असुरों का यानी आसुरी सम्पदा युक्त व्यक्तियों का पुरोहित शुक्राचार्य हैं जो शुक्राणु Sperm स्कन्द की संख्या में वृद्धि करने वाले आहार के पुरोहित और ग्रह हैं। जिससे व्यक्ति में राजसी विकार आ जाते हैं और वह राक्षस प्रवृति/प्रकृति का होकर ईश्वर-भोगी भैरव हो जाता है। जबकि वृहस्पति शुक्राणुओं की संख्या में नहीं सत्व में वृद्धि करने वाले आहार का पुरोहत और ग्रह होता है जिसके परिणाम स्वरूप सत्वप्रधान प्रकृति/प्रवृति का देवी सम्पदा युक्त ईश्वर-भाव [संरक्षक भाव] वाला सेनानी कार्तिकेय पैदा होता है। इसालिए वृहस्पति को मुख्य पुरोधा कहा गया है। 

सरसामस्मि सागर:  इसके  शब्दानुवाद में तो और भी अधिक त्रुटी है। यहाँ स रसां अस्मि सागर  है अर्थात रस [रसायन] सहित जितने भी भण्डार है उनमे मैं सागर हूँ। ध्यान रहे नमक सभी रसायनो में सर्वाधिक महत्त्व पूर्ण रसायन है।


हमारे शरीर में तीन तरह के यज्ञ वर्गीकृत हैं। 1.ब्रह्म यज्ञ 2. अधियज्ञ  3. देव यज्ञ .
ब्रह्म यज्ञ में कार्बनिक रसायन [ Organic Chemical ] शर्करा की मुख्य भूमिका होती है। जो शर्करा का उपयोग नहीं करते उनकी स्मृति कमजोर हो जाती है और अनिंद्रा रोगी हो जाते हैं। चिन्तन के स्थान पर चिन्ता करते हैं। इसीलिए पुरोधाओं में प्रमुख विभूति वृहस्पति का जिक्र किया है। जिसका वृहस्पति उच्च का होता है उसके अन्दर sanse, बोध,स्वविवेक,आत्म-संयम,ज्ञान,विद्याएँ और स्मृति को स्थायी रखने वाला अमृत [ हार्मोन्स ] का श्राव अधिक होता है और वह मिष्ठान भोजी होता है।

अधियज्ञ में अकार्बनिक रसायन [ Inorganic Chemical ] नमक की प्रमुख भूमिका होती है। यदि नमक न खाया जाये तो पाचन क्रिया गड़बड़ा जाती है और रक्त विषाक्त हो जाता है। सागर में जल के साथ नमक होता है। पृथ्वी के दोनों ध्रुवों के बीच विद्युत् चुम्बकीय आवेश चलते रहते हैं जिस कारण से:- नमक के सोडियम और क्लोरीन + जल के हाईड्रोजन और ऑक्सीजन = नमक का तेज़ाब + कास्टिक सोडा बनता है।जो  पुनः रासायनिक क्रिया करके नमक और पानी बन जाते हैं और इस तरह यह रासायनिक क्रिया का   परस्पर उभयपक्षी चक्र अबाधित चलता है। यही क्रिया जठराग्नि में चलती है। नमक का तेज़ाब प्राणी कोशिकाओं यानी मॉस और घी-दूध को पचाता है तथा कास्टिक वनस्पति कोशिकाओं को पचता है। रस सहित [स रस ] में सागर अद्वितीय है।

देव यज्ञ के लिए सत्व [ वीर्य] के निर्माण में शर्करा की प्रमुख भूमिका होती है जो पुरोधाओं के मुख्य वृहस्पति द्वारा संचालित यज्ञ प्रक्रिया है और नमक द्वारा संचालित पाचन व् रक्त परिवहन की क्रिया से मासपेशियों में बल पैदा होता है जिसमे रस की प्रमुख भूमिका होती है। इस तरह इस श्लोक में उस विषय की अशेषेण जानकारी दे दी है जो हमारे वर्तमान पैदा होने के बाद का वर्तमान जीवनकाल, प्रयाण के बाद पुनः पैदा होने के बाद का आगामी जीवनकाल और सन्तानों के माध्यम से स्व के भावों का विस्तार इन तीनो का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विषय है।

चूँकि आप का एकात्म भाव तो अमरता दिलाने वाला चित्त का चेतन्य भाव है जो एक तिहाई है लेकिन चूँकि वह अव्यक्त में भी भाव से भावित रहता है अतः दो व्यक्त जीवनकाल के बीच की कड़ी बनता है और अमरता देता है अतः महत्त्व पूर्ण है लेकिन आपके जीवनकाल में भौतिक अस्तित्व बनाने और बनाये रखने वाला सत और ज्ञान व् भोग का आनन्द देने वाला और भावों में क्रमिक वृद्धि करने वाला दो तिहाई तो व्यक्त जीवन के कालखण्डों में ही सम्भव होता है तभी सत-चित्त-आनंद तीनों आयाम घन Cubic होकर सचिदानंद घन की स्थिति प्राप्त करने का अवसर मिलता है जो प्रणय के देवी-देवता बनने की परम्परा से ही उपलब्ध होता है।   


क्या आप एक ऐसी व्यवस्था की कल्पना कर सकते हैं ? जहाँ पौष्टिक आहार वैदिक तरीके से दिया जाये और आपको सिर्फ प्रणय के देवी- देवता बन कर प्रणय के देवी-देवता पैदा करना हो, उन्हें शरीर की प्रकृति से देव और दिमाग/Brain से ब्राह्मण बनाने का दायित्व सरकार का हो, जब आचरण से यक्ष-राक्षस पैदा ही नहीं होंगे तो न तो वित्त के विषय में आर्थिक-शोषण होगा और न ही देह के विषय में श्रम का शोषण जैसा भ्रष्टाचार होगा और  शम की स्थिति में अड़चन न आए इसके लिए रोजगार आपको पसंदीदा मिले। 


यदि हाँ ! तो आप प्रथम चरण में मतदाता सैनानी बन कर संसद से दल दल हटायें। 
बाकी सभी बाद के चरण है। 

ॐ तत सत  

भगवान और भगवती को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाओ।

प्राकृत [ क्षेत्रीय ] भाषाओँ में सरल उच्चारण के साथ संस्कृत के शब्द विद्यमान हैं।  जैसा कि मैं भव्य महा भारत संरचना में अपने जन्म स्थान छोटी काशी का जिक्र कर चूका हूँ जहाँ श्रद्धा के लिए सरदा शब्द का उपयोग होता है। इसी तरह वहां की भाषा में प्रणय शब्द के लिए 'परणीजणा' शब्द का उपयोग होता है। 

आपने एक हिंदी फ़िल्मी गाना सुना होगा ! 

तुम प्रणय के देवता हो,  मैं समय की भूल हूँ।  
तुम गगन के चंद्रमा हो ,  मैं धरा की धूल हूँ। 
       
आज-कल की अधिकाँश संतति, समय की भूल और धरा की धूल बन कर रह गयी है। ऐसा   

क्या आप एक ऐसे भारत की कल्पना कर सकते हैं ? जिसमे विवाह प्रणय के लिए किया जाये।सामाजिक औपचारिकता, जातीय-बंधन, आर्थिक मज़बूरी इत्यादि के परिणाम को ध्यान में रख कर नहीं और प्रणय का परिणाम देवता हो या देवी जो भी हो उसके केरियर और प्रतिभा विकास की चिंता आपको नहीं, सरकार को हो।

आप यदि, इस कल्पना को साकार करना चाहते हैं, तब तो संसद को दल दल के खेल से मुक्त करो।

मेरे दृष्टिकोण से आज सबसे बड़ा मानवीय भ्रष्टाचार यही है कि हम इस नैसर्गिक धर्म को भी, वित्त एवं सामाजिक मान्यताओं में घसीट कर, अधर्म बना चुके हैं. 


गीता अध्याय-4 श्लोक-7 / Gita Chapter-4 Verse-7

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।7।।

भारत = हे भारत! भारत में ; यदा  यदा = जब जब; धर्मस्य = धर्म के प्रति; ग्लानि: = ग्लानि भाव; भवति = पैदा हो जाते है; अधर्मस्य = अधर्म के प्रति; अभ्युत्थानम् = अभय का उत्थान हो जाता है ; तदा = तब;  आत्मानम् = अपने आप का ; सृजामि = सृजन करता हूँ; अहम् = मैं;

यहाँ भारत के भारतीय को सम्बोधित करते हुए ब्रह्म कहता है कि जब-जब भारतियों में धर्म के प्रति ग्लानी भाव  पैदा हो जाता और अधर्म के प्रति भय का भाव समाप्त हो जाता है और अधर्म का आचरण करने वालों का उत्थान होने लग जाता है, तब-तब मैं [ब्रह्म] अपने-आप का सृजन करता हूँ ।।7।।

जैसा कि धर्म और विज्ञान ब्लॉग में धर्म के तीन आधार/आयाम बताये है।

1.मनुष्य की उर्ध मुलाकार संरचना में उसके मूल [ दिमाग रुपी जड़ ] से उसका जो मौलिक धर्म उपजता है उसे सरल शब्दों में शिक्षित होना कहेंगे, अपने Sanse,बोध,ज्ञान का विकास करना कहेंगे। इस विषय में भी धर्म के प्रति ग्लानी पैदा हो गयी है अतः कहावत बन गयी/चल पड़ी है कि ज्ञान से पेट नहीं भरता अतः  ज्ञान पाठ्य क्रम रट कर पास-बुक पढ़ कर पास होने का प्रमाण पत्र लेते तक सीमित हो गया है। जो तिकड़म भिड़ा कर यानी अधर्म पर चलकर प्रमाण-पत्र प्राप्त कर लेते हैं उनका उत्थान हो जाता है।

2.सार्वजनिक जीवन में 
धर्म का एक आयाम आधार-भूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दायित्व और अधिकार होता है जिनके प्रति ग्लानी भाव पैदा हो गया है अतः जो दायित्व और अधिकार की बात करता है उसे मुर्ख और अपरिपक्व कहा जाता है। आज दायित्व-हीन जीवन-शैली और अपने उत्थान के लिए अनाधिकृत चेष्टाएँ होती है।

3.धर्म का तीसरा आयाम और आधार नैसर्गिक धर्म होता है। आहार, निंद्रा और वैवाहिक जीवन यानी प्रणय। आज समय पर शुद्ध पौष्टिक आहार के प्रति यानी दुग्ध-शर्करा के प्रति ग्लानी भाव पैदा हो गया है और आधा पका आधा कच्चा फास्ट फ़ूड लोकप्रिय हो गया है। पैसे कमाने के चक्कर में मानव इतना कमीना हो गया है कि तनाव ग्रस्त होकर अनिंद्रा रोगी हो गया है और अधियज्ञ [ मेटाबोलिज्म ] संचालित करने वाले भगवान को क्रश करता है। इसी तरह केरियर बनाने के चक्कर में विवाह नहीं करता है। यदि वह संयम रखता है तब तो ठीक है लेकिन वह अप्राकृतिक क्रियाएं और अनैतिक सम्बन्ध बनाता है तो उस आचरण के लिए धर्म के प्रति ग्लानी और अधर्म का उत्थान कहा जायेगा।

एक तरफ कन्यां भ्रूण हत्याओं के प्रति जागरूकता की बात करके लोग मसीहा बनते हैं, तो दूसरी तरफ यूरोपियन लोगों और मुगलों द्वारा चलाई गई वेश्यालयों की प्रथा का विस्तार हो रहा है।

इस तरह अधर्म का उत्थान हो रहा है लेकिन धार्मिक वैज्ञानिक शब्दकोष में कहें तो हर एक प्रजाति की मादा में भगवती और हरेक नर में भगवान का भाव  है। इसी तरह ॐ आकार वाली मानव-प्रजाति में, हरेक नर देह को शंकर, और नारी देह को पार्वती कहा गया है।

अतः नर-पुरुष को चाहिए वह माता रूप मादा को भगवती समझ कर उस से प्रेम् करे और मादा को चाहिए वह नर को भगवान का साकार रूप समझ कर उसका सम्मान सत्कार करे। नारी की मानसिकता प्रेम की अपेक्षा करती है तो नर हमेशा सम्मान सत्कार चाहता है। जब पुरुष को सम्मान नहीं मिलता तो वह प्रेम अभिव्यक्त नहीं कर सकता और जब स्त्री को प्रेम नहीं मिलता तो वह पुरुष का सम्मान नहीं करती इस तरह रह नकारात्मक चक्र जीवन को नरक बना देता है।     


इस तरह यह भगवान और भगवती के प्रति महा-भ्रष्टाचार है कि आज जीवन के इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण धर्म के प्रति ग्लानी भाव आ गया है और पति-पत्नी के बीच से लेकर सार्वजानिक रूप से महिलाओं और पुरुषों के बीच जो कटुता बढ़ रही है उसके लिए कहेंगे अधर्म का उत्थान हो रहा है। 

भारत में विवाह के समय जितने बड़े आयोजन होते हैं उतने अन्यत्र कहीं नहीं होते। जब वर घोड़ी पर चढ़कर चलता है तो उस समय वह महत्त्वपूर्ण होता है और वधु भी अपने घर में महत्त्वपूर्ण होती है क्योंकि 
वे प्रणय के देवी-देवता बनने जा रहे होते हैं।

प्रणय उत्सव [परणीजने के समय का उत्साह ] जितना भारत में होता है अन्यत्र नहीं मिलेगा। इस आयोजन से धर्म के अर्थव्यवस्था वाले आयाम को भी बहुत बड़ा सहारा मिलता है। लेकिन धर्म के दो अन्य मूल आयाम तो इस नैससर्गिक विषय से ही पैदा होते हैं।

जैसा कि प्राणी की तीन नैसर्गिक आवश्यकताएं होती है आहार-निन्द्रा-विरेचन, ये तीनों आवश्यकताएं प्रणय विज्ञान से जुडी होती है।

जिसे सुख तथा सत-चित-आनंद घन की स्थिति कहा जाता है वह दो प्रकार की होती है एक ब्रह्म की एकात्म परम्परा वाली जोकि स्थाई होती है वह आत्म-संयम योग वाले  समाधि योग से प्राप्त होती है जोकि  व्यक्ति को हमेशा शम रखती है तो दूसरी सुख की स्थिति अद्वेत वैदिक परम्परा वाली प्रणय-काल में होती है।

भारतीयों में आत्म संयम का इतना अधिक प्रभाव रहा है कि वयस्क होने यानी विवाह की आयु होने के बाद भी इस नैसर्गिक आनंद के प्रति लोलुप नहीं रहते थे बल्कि शर्मीले और संकोची रहे हैं, अतः परिवार और समाज द्वारा यह दबाव बनाया जाता था कि यह प्रणय-धर्म है इस का त्याग करना अधर्म माना जाता है।

बाल विवाह की प्रथा के पीछें भी धर्म के तीनों आधार शिक्षा-स्वास्थ्य-अर्थव्यवस्था थे। दहेज़ के पीछें भी अर्थ व्यवस्था और भाई-बहन के बीच पैतृक सम्पत्ति के अधिकार को लेकर वैमनष्य की समाप्ति इत्यादि आधार है कोई भी परम्परा आधारहीन नहीं होती लेकिन जब आप प्रत्तेक क्षेत्र में भ्रष्टाचारी हो गए हैं तो अपने द्वारा किये जा रहे भ्रष्टाचार की जिम्मेदारी प्रथा पर डाल रहे हैं। 

इस विषय में इस ब्लोग में निरन्तर लेखन होगा और भ्रष्टाचार के अनेक भेद बताये जायेंगे लेकिन आज जो स्थिति चल रही है उसमे इतना ही कहना है की भगवान् और भगवती व्यक्ति वाचक शब्द नहीं हैं भाव वाचक है जिसका अर्थ है प्रतेक जीव योनी के नर और मादा जो कि इस जगत में प्रणय का एक विशेष भाव लेकर पैदा होते हैं। तभी तो सन्तति का विस्तार होता है और वर्ण संकरता से सुरक्षा मिलती है, तभी तो भग [योनी,प्रजाति,नस्ल,Species] के भाव का वान वाहक,धारक  इस विषय में आकर्षण-विकर्षण  करता है। तभी तो एक कीट के पैरों पर अनेक प्रजाति के परागकण चिपके होते हैं लेकिन जिस प्रजाति के पुष्प पर वह बैठता है उस की Ovary [अण्डाशय] उसी परागकण को आकर्षित करती है जो उसकी प्रजाति का होता है।

इसी तरह प्राणी भी वयस्क होने के बाद अपनी प्रजाति के साथ ही जोड़ा बनाता है और ॐ आकार वाली मानव प्रजाति का स्कन्द/कार्तिकेय भी जब वयस्क हो कर शंकर बनता है तो वह भी पार्वती की तरफ ही आकर्षित हो कर जोड़ा बनाता है। 

लेकिन वर्त्तमान समय या कालखण्ड में भ्रष्टाचार की तब अति हो जाती है जब एक तरफ तो अवैज्ञानिक / अवैदिक आहार से बौद्धिक परिपक्वता / Intellectual maturity आने से पहले ही बच्चे शारीरिक रूप से वयस्क Physically adult हो जाते हैं और उनमे हार्मोन्स का स्राव होने लग जाता है और प्रकृति जनित प्रक्रिया से परस्पर आकर्षित होते हैं अतः आत्मसंयम रखना टेढ़ी खीर हो जाती है, तो दूसरी तरफ विवाह की आयु को मानव निर्मित कानून में बांधा जाता है।  आर्थिक भ्रष्टाचार भी इस सीमा तक हो गया है कि युवा होने के बाद भी जब तक वह करियर नहीं बना लेता और मानव निर्मित मुद्रा नहीं कमाता तब तक प्रकृति निर्मित भगवान के इस आकर्षक भाव से वंचित रहना पड़ता है यानी प्रणय सूत्र में  बंध नहीं सकता।धर्म के प्रति ग्लानी भाव की स्थिति यहाँ तक हो गयी है कि जो युवा आत्म-संयम नहीं रख पाते उनके  प्रणय निवेदन / प्रेम के इजहार / प्रेमाभिव्यक्ति  को भी अधर्म कहा जाता है।    

वेश्यालयों का विस्तार हो रहा है , कन्या भ्रूण हत्याएं हो रही है, लेकिन एक से अधिक विवाह की संविधान में अनुमति के बाद भी इसे अपराध माना जाता है। जिन जातियों में विधवा-विवाह सहज रूप से मान्य था, उनमे भी कुंठाएं पैदा कर दी गई है। यह सब भगवान् और भगवती को भी भ्रष्टाचार से परेशान करने वाली बातें हैं। लेकिन आपने तो भ्रष्टाचार की परिभाषा को भी रिश्वत नाम की एक सीमा से घेर दिया है। 

इस भ्रष्टाचार के बंधन से, मुक्ति,मोक्ष,निर्वाण प्राप्त करना हो, तो संसद को दल दल से मुक्ति दिलाओ ताकि वाद /वात के रोग से ग्रसित तथाकथित प्रबुद्ध लोगों के वाद-विवाद से मुक्त होकर सर्व सम्मति से एक नए कल्प का निर्माण किया जा सके। जहाँ नैसर्गिक और स्वार्गिक आनन्द प्राप्त करना धर्म समझा जाये और अनैतिक, चोरी-छिपे, वेश्यागामी होना अधर्म माना जाये।

आप सिर्फ संख्या के आधार पर लडके-लड़कियों के अनुपात के आंकड़े देते और देखते हैं, जबकि भारत में विवाह सम्बन्ध जाति के अन्दर होते हैं, अतः या तो अन्तर्जातीय विवाह के लिए वातावरण बनाया जाये या फिर बहुपत्नी और बहुपति परम्परा को पुनः स्थापित किया जाये और भगवान को मानव निर्मित धर्म [संविधान और सामाजिक मान्यताओं] से मुक्त किया जाये। 

लेकिन शायद मानव का यह दुर्भाग्य पहली बार नहीं है,इससे पहले भी रह चूका है कि जब एक बहुत बड़ा तमोगुणी वर्ग फ़ैल गया है जो भगवान की,ईश्वर की,ब्रह्म की अपने-आप से भिन्न कहीं अंतरीक्ष में कल्पना करता है और यथार्थ से दूर भ्रम में भ्रमण करता है।  

 ॐ तत सत